गणतंत्र दिवस पर मेरे द्वारा लिखी गई हिन्दी कविता।
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Copyright © 2022 Jalpa lalani ‘Zoya’
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1222 1222 1222 1222
ये कैद-ए-इश्क़ से ‘जाना’ तुझे आज़ाद करते है,
मुकम्मल आज तेरी और इक मुराद करते है।
भुला देना मुझे बेशक़ जो चाहो भूलना पर हम,
कहेंगे ना कभी तुम्हें कि कितना याद करते है।
खता कर बैठते है हम मुहब्बत में तिरी यूँ ही,
कि अक्सर उस ख़ुदा का ज़िक्र तेरे बाद करते है।
किया महबूब का सजदा मैंने, की है इबादत भी,
वो ठुकरा के मिरा ये इश्क़ कहीं ईजाद करते है।
कि वो बरबाद करके ज़ोया को, मासूम बन बैठे
दिखाने को किसी की ज़िन्दगी आबाद करते है।
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स्वरचित , सर्वाधिकार सुरक्षित
इज़हार-ए-इश्क़ में कुछ क़समें झूठी सी उसने खाई थी,
यक़ीन नहीं आता, क्या मोहब्बत भी झूठी दिखाई थी?
सरेआम नीलाम कर दिए उसने मेरे हर एक ख़्वाब को,
जिसने मेरे दिन का चैन औ मेरी रातों की नींद चुराई थी।
जिसे समझ बैठी थी मैं आग़ाज़-ए-मोहब्बत हमारी,
दरअसल वो तो मिरे दर्द-ए-दिल की इब्तिदाई थी।
यूँ तो नज़रअंदाज़ कर गई मैं उसकी सारी गलतियां,
मगर क्या अच्छाई के पीछे भी छुपी उसकी बुराई थी!
अब कैसा गिला और क्या शिकायत करूँ उससे!
जब दोनों के मुक़द्दर में ही लिखी गई जुदाई थी।
उसकी इतनी बे-हयाई और बेवफ़ाई के बावज़ूद भी,
माफ़ कर दिया उसे, ये तो ‘ज़ोया’ की भलाई थी।
[इब्तिदाई=शुरुआत]
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स्वरचित, सर्वाधिकार सुरक्षित
1122 1212 1121
जो बरसता है तेरे इश्क़ का आब,
तो है खिल उठता मेरे दिल का गुलाब।
कि मुनव्वर करे अँधेरी ये रात ,
तिरी सूरत का परतव-ए-माहताब।
तिरी क़ुर्बत में कुछ अजब सा नशा है,
ख़ुशी से झूमा हूँ बिना ही शराब।
कहीं लग जाए ना नज़र तुझे सबकी,
कि ज़रा रुख़ पे पहनो तुम भी हिजाब।
यूँ जमाल-ए-सनम की आँखों के आगे,
फ़िके पड़ते सितारे ओ आफ़ताब।
तिरा ‘ज़ोया’ दिवाना कौन नहीं है!
मिला है ये शरीफ़ को भी ख़िताब।
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स्वरचित, सर्वाधिकार सुरक्षित