सुनहरी लहराती ये ज़ुल्फ़ें तिरी और ये शबाब,
कोमल नाज़ुक बदन तिरा जैसे महकता गुलाब।
बैठ गया तू सामने तो साक़ी की क्या ज़रूरत,
सुर्ख़ थरथराते ये लब तिरे जैसे अंगूरी शराब।
सहर में जब तू लेता अंगड़ाई ओ मिरे सनम,
तुझे चूमने फ़लक से उतर आता है आफ़ताब।
रौशन कर दे अमावस की काली अँधेरी रात भी,
मिरा हसीं माशूक़ जब रुख़ से उठाता है हिजाब।
तारीफ़-ए-हुस्न लिखने को बेताब है मेरी कलम,
ग़ज़ल क्या! ‘ज़ोया’ तुझ पे लिख दूँ पूरी किताब।
© Jalpa lalani ‘Zoya’ (स्वरचित)
सर्वाधिकार सुरक्षित
शुक्रिया
वाह , खुबसूरत गजल भी |
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बहुत बहुत शुक्रिया😊
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Wahhh..
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बहुत बहुत शुक्रिया😊
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बेहतरीन
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बहुत बहुत शुक्रिया😊
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बहुत सुंदर ❤
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बहुत बहुत शुक्रिया😊
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Bahot khoob 🍫
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बहुत बहुत शुक्रिया😊
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Very nice!!
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बहुत बहुत शुक्रिया😊
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बहुत खूब 👌✍️
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बहुत शुक्रिया😊
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वाह। क्या बात।👌👌
मत लिख किताब,
कही खो न जाएं उसमें,
आ पास जरा,बैठ इत्मीनान,
प्यासी हैं नजरें
कान और दिल भी,
अजीब सी है हलचल,
छूकर गुजरते पानी कलकल,
रख दे कलम और दवात अभी कही दूर,
बैठे हैं किस्ती में मगर लगता क्यों ऐसे
जैसे सागर से हूँ अभी दूर।
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बहुत बहुत शुक्रिया😊
वाह, वाह👏👏 बेहतरीन पंक्तियां👌
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धन्यवाद आपका।🙏🙏
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khubsoorat ghazl
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बहुत शुक्रिया😊
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