आज की बारिश को महसूस कर के कुछ ज़हन में
आया है जो कागज़ पर उतर आया है।
उफ्फ़ ! क्या ढाया है कुदरत का क़हर
जैसे बह रहा है सड़को पर समंदर।
जिस बारिश से आती है चेहरे पर ख़ुशी
आज वह बारिश क्यों हुई है गमगीन।
दौड़ आते थे बच्चे बारिश में खेलने बाहर
आज वह डर के बैठे हैं घर के भीतर।
दुआ करते थे पहली बारिश होने की
आज दुआ कर रहे हैं उसे रोकने की।
यह गरजता हुआ बादल जैसे रोने की सिसकिया
यह चमकती हुई बिजली जैसे आँखों की झपकियां।
क्या गलती हो गई हम इन्सान से ऐ ख़ुदा
क्यों आज बादल को पड़ रहा है रोना।
अब नही सुनी जाती बादल की यह सिसकिया
साथ मे सुनाई देती हैं किसानों की बरबादियाँ।
संभल जा ऐ इन्सान, है इतनी सी गुज़ारिश
सर झुका दे कुदरत के आगे तभी रुकेगी यह बारिश।
© Jalpa lalani ‘Zoya’
शुक्रिया।
very beautifully written
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जी बहुत शुक्रिया आपका😊
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प्रकृति का स्वरूप बिगड़ा है। शायद हमें सुधारकर या खूफ को सुधारकर ही अपनी पूर्व स्थिति में आएगी।
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जी मेरी रचना को पढ़ने के लिए शुक्रिया आपका😊 जी मैं आपकी बात से बिल्कुल सहमत हूँ।🙏
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स्वागत आपका।🙏
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बहोत अच्छि रचना धन्यवाद
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जी बहुत शुक्रिया आपका😊 क्या आप इस्माइली हो?
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हा मे इस्लामी हुं
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Splendid!!!
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Thank you so much😊
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bahut khoob 🙂
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जी बहुत शुक्रिया आपका😊
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