एक निर्दोष जीव भटक गया था रास्ता, जंगल के पास दिखा उसे एक गाँव
इधर-उधर भटक रहा भूखा-प्यासा, इंसानो को देख जगी उसे एक आशा
मन मे सोचा इंसान में होती है मानवता, क्या पता था इंसान के रुप में था दरिंदा
क्यों खिलाया भूखे जीव को विस्फोटक अनानास, कहाँ गई थी इंसान की इंसानियत
पेट की आग तो न बुझी उसकी, पर उस विस्फोटक ने हथनी का मुंह दिया जला
अपनी फ़िक्र नहीं थी उस माँ को, फ़िक्र थी उसे जो पेट में पल रहा था एक बच्चा
हो गई थी ज़ख्मी फिर भी थी उसमें दया नहीं किया उसके हत्यारों का कोई नुकसान
उन हैवानों को जरा भी रहम नहीं आया, जो दो बेजुबानों की बेरहमी से ले ली जान
सिर्फ भूखी थी माँ और आख़िर क्या कुसूर था उसका जो अभी तक जन्मा नहीं था
ऐसे क्रूर कृत्य से किसीकी भी रूह काँप जाए, पर वो हत्यारे तो हुए भी नहीं शर्मसार
धीरे-धीरे विनाश हो रहा है सृष्टि का, इंसान क्यों नहीं समझ रहे है ईश्वर का इशारा
ऐ ईश्वर! दे मुझे एक जवाब, ऐसे हैवानों के कृत्यों की निर्दोष जीव क्यों भुगतें सजा?
~Jalpa ‘Zoya’
मार्मिक प्रस्तुती।
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🙏🙏
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खूबसूरत रचना
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🙏🙏
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Very nicely written Zoya.
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Thank you so much!😊
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