“खुशी”
मुद्दतों से देख रहे थे राह तेरी
तू आयी भी तो तब
जब सफ़र ख़त्म होने को है।
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गलत सोच थी मेरी
दुःख की इमारत मेरी है सबसे बड़ी
जब किया मैंने सफ़र
हर इमारत बड़ी निकली।
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ज़्यादा नही बदला मेरा बचपन
पहले सब रोकते थे
और हम खेलते थे
अब सब खेल रहे है हमसे
और हम रुके हुए से हैं।
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प्यार हुआ पर पूरा ना हुआ
ख़्वाब देखा पर ज़रा देर से देखा
मुलाक़ातें हुई मगर अधूरी रही
जुदा हुए मगर एहसास कम ना हुआ।
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बाहों में उनके लेते ही हम तो पिघल से गये
पता ही नही चला कब हम उनके इतने क़रीब आ गए।
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अक्सर हमारे पैरों में कांटा चुभना भी गवारा नही था उनको
अब दिल के ज़ख़्म का भी एहसास नहीं उनको।
~Jalpa
👌👌
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जी बहुत शुक्रिया आपका😊
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प्रत्येक पद बेहतरीन है। लाजवाब।👌👌
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जी बहुत शुक्रिया आपका😊
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Swagat apka.
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वाह 👌
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जी बहुत शुक्रिया आपका😊
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खूबसूरत रचना
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जी बहुत शुक्रिया आपका😊
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बहुत ही अच्छी रचना है, 👍🙂
कोरोना व लॉक-डाउन पर मैंने भी कुछ लिखने की कोशिश की है,
आशा है आपको पढ़ कर निराशा नहीं होगी।कृपया एक बार अवश्य पढ़ें
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जी बहुत शुक्रिया आपका😊 जी जरूर😊
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मैंने भी कोशिश की है ‘सुशांत सिंह राजपूत’ के लिए कुछ लिखने की शायद आप उन भावनाओं को और गहराई से समझ पाए। वक़्त निकाल के पढियेगा जरूर।🙏🙏
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बहुत सुंदर । आप मेरी साइट भी विज़िट कर लाइक और कमेंट कर बताएं कि मेरा प्रयास कैसा है 🙏🙏
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जी बहुत शुक्रिया आपका😊
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